वर्गीकृत भारत - 2 (लोकतंत्र का विकल्प)

           लोकतंत्र की पृष्ठभूमि रचते हुए व्यक्ति के अधिकारों और स्वतंत्रता को पुरज़ोर रूप में स्थापित किया गया । यह कल्पना की गई कि प्रत्येक व्यक्ति अपने-आप में स्वतंत्र जीवन जीने का संकल्प रखता है और इस संकल्प को प्राप्त करने का अधिकार उसके पास सर्वथा होना चाहिए । किन्तु, क्या लोकतंत्र इस बात की भी पुष्टि करता है कि जिस स्वतंत्रता और जिन अधिकारों की बात वह कर रहा है , उन अधिकारों का वितरण लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले और न रखने वाले , प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से कर सकेगा ? क्या लोकतंत्र इस बात को सत्यापित करने का प्रयास करता है की प्रत्येक व्यक्ति को उसके अधिकार प्राप्त हुए भी अथवा नहीं ?
           यदि भारत के लोकतांत्रिक स्वरूप की बात करें तो इसके सैद्धांतिक और व्यावहारिक, दोनों पक्षों में एक भारी अंतराल दिखाई देता है । जिसकी दो पाटों के बीच हर वो व्यक्ति पिसता है , जो अपने अधिकारों की ओर हाथ बढ़ाने का प्रयास करता है किन्तु उसे कुछ मिल नहीं पता और न मिल पाने की स्थिति में वह न्याय का मुँह ताकता है
, जहाँ उसे संतोषप्रद और समयबद्ध न्याय की प्राप्ति होगी ही , कुछ कहा नहीं जा सकता ।
           एेसा ही कुछ भारतीय संविधान के साथ है । जिसने अपने ‘मूँगेरी लाल के सपनों’ की भाँति भारतीय नागरिकों को हवाई बातों में उलझाकर लोकतन्त्र में झोंक दिया और उन सब लोगों को कठपुतली बनाकर रख दिया , जिन्हें आज अपने एक छोटे से अधिकार की प्राप्ति के लिए भी दर-दर ठोकरें खानी पड़ती हैं। स्वतंत्र जीवन के सपने और अधिकारों की झूठी गंगा , अगर दोनों को ही किसी आम व्यक्ति के नज़रिए से देखें तो वह व्यक्ति हमें घोर वंचना की स्थिति में दिखाई देगा क्योंकि उसे न तो एक स्वतंत्र जीवन प्राप्त हो रहा है और न हीं उसे कोई ऐसा अधिकार (आरटीआइ के अतिरिक्त) प्राप्त हुआ है, जिस पर वह स्वयं गर्व कर सके । काग़ज़ों पर लिखे हज़ारों अधिकारों का अगर ज़मीनीकरण न हो सके तो ऐसे अधिकारों का कोई महत्व नहीं रह जाता । ऐसे काग़जो़ं को संभालकर उनकी पूजा करने के बजाय , उनको जला देना ही बेहतर होता है।
           व्यक्ति को अपने अधिकारों की प्राप्ति न होने पर भारतीय संविधान जिन उपबंधों का उल्लेख करता है , उनका व्यवहारगत विश्लेषण अत्यंत ही हास्यास्पद एवं दुखद नज़र आता है । यदि ऐसे कई उपबंधों में से मात्र एक उपबन्ध की ही बात करें तो अनुच्छेद-19 के अनुसार (शब्दश: नहीं ) यदि किसी व्यक्ति को न्याय की प्राप्ति न हों तो अभिव्यक्ति के अधिकार के तहत वह शांति पूर्वक धरना-प्रदर्शन कर सकता है । यह अनुच्छेद काग़ज़ी रूप से बड़ा महान लगता है किन्तु यह बात तब अधिक चिंतनीय हो जाती है जब यह मालूम होता है कि भारत में अभी भी साक्षरता दर 75.06 प्रतिशत ही है और जब इस अनुपात को पुरुष और महिला तक ले जाते हैं तब पुरुषों में साक्षरता दर 82.14 प्रतिशत तथा स्त्रियों में मात्र  65.46 प्रतिशत ही रह जाती है । अब यदि अधिकार प्राप्ति हेतु धरना प्रदर्शन की बात करें तो साक्षरता दर से मालूम होता हैं कि अभी भी भारत की कुल जनसंख्या का लगभग 25 प्रतिशत और स्त्री जनसंख्या का लगभग 35 प्रतिशत हिस्सा इस बारे में जानकारी ही नहीं रखता की उसके अधिकार क्या हैं और उन अधिकारों की प्राप्ति किस प्रकार की जा सकती है?
           यदि साक्षरता दर के इन आँकड़ों से इतर कर बात करें तो स्थिति और भी भयावह दिखाई देती है क्योंकि हमने जिस तरह की घटिया शिक्षा व्यवस्था का उपभोग किया है , वो कितने शिक्षित लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक कर पाई और कितने लोगों को अधिकार प्राप्ति हेतु प्रयास करने के योग्य बना सकी, इस बात का अंदाज़ा लगा पाना ज़्यादा मुश्किल नहीं हैं । चन्द मुट्ठी भर हाई प्रोफ़ायल लोगों के लिए अधिकारों की प्राप्ति हो जाने को लोकतंत्र की सफलता नहीं कहा जा सकता ।
           वर्तमान में लगातार बढ़ती धरना-प्रदर्शनों की संख्या व्यवस्था से लोगों के मोहभंग की प्रबल सूचक है । जब भी कोई धरना बैठता है , तब-तब यह लगभग निश्चित हो जाता है कि आमजन के अधिकारों का ह्रास हुआ है अन्यथा वे धरने जैसे माध्यम को चुनने का साहस ही नहीं उठा पाते । सामूहिक अधिकारों के हनन पर यह बात सोची जा सकती है कि प्रदर्शन का सहारा लिया जाए किन्तु जब किसी एक व्यक्ति के अधिकारों का हनन होता है तब उसके न तो को प्रदर्शन काम आता है और न ही कोई प्रशासन ।
           आख़िर हम हमेशा प्रत्येक व्यक्ति से इस बात की अपेक्षा भी तो नहीं कर सकते की वह सदैव अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए ही लड़ता रहे । क्या लोकतंत्र की यह ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि उसके प्रत्येक नागरिक को उसके सभी अधिकार सुलभ प्राप्य हों? काग़ज़ों में लिखे उपबन्ध घटिया राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था की भेंट चढ़ जाते हैं और ग़रीब तथा वंचित व्यक्ति इसे अपनी नियति समझकर अपने घिसे-पिटे जीवन के बोझ तले दबते हुए अपनी साँसे तोड़ देता है । उसे महसूस होता है की लोकतंत्र में अधिकार ‘प्राप्त’ नहीं होते , उन्हें ‘ख़रीदना’ पड़ता है और ख़रीदने की हैसियत न हों , तब या तो घुट-घुट कर मार जाना पड़ता है अथवा अपने ही अधिकारों को छीनने के लिए अपनी पूरी आदम शक्ति का प्रयोग करना पड़ता है ।
           मुझे नहीं लगता कि इस व्यवस्था में हममें से एक भी व्यक्ति बचा हो , जो भ्रष्टाचारी और निकम्मे प्रशासन से टकरा कर तहस-नहस न हुआ हो , ठीक उसी प्रकार जैसे इस दुष्ट समाज में एक भी महिला अपने पूरे जीवन में बिना छेड़छाड़ की शिकार हुए नहीं रह सकती । लोकतंत्र न समाज को सुधार सका और न हीं व्यक्तियों में उन मूल्यों का विकास कर सका , जिनसे पुरुष-स्त्री , अमीर-ग़रीब, सम्पन्न-विपन्न, जैसी अवधारणाएँ गौण हो सके ।हमारा समाज अभी भी उस घटिया दौर से गुज़र रहा है , जिसमें प्रत्येक स्त्री असुरक्षित होकर ड़र-ड़रकर पूरा जीवन निर्वाह करती है और जो राज्य सुरक्षा की सम्पूर्ण गारंटी देता है , वह मूकदर्शक बनकर मौक़ापरस्तों की तरह शक्तिशाली लोगों के तलवे चाटता है । तब क्या स्त्रियाँ इस बात को सोचेंगी कि उनके घुटन भरे जीवन को बाँधने वाले समाज और राज्य की दीवारों को तोड़कर अपने स्वतंत्र जीवन का निर्माण वो स्वयं अपने हाथों में किस प्रकार लेंगी? और यदि समाज और व्यवस्था , उनके अधिकार प्राप्ति के रास्ते में आते हैं तब विद्रोह का कौनसा रास्ता वो अख़्तियार करेंगी?
           अब लोकतांत्रिक व्यवस्था अपने ही ढाँचे में फँसकर रह गई है और लोगों का इस व्यवस्था से उठता विश्वास एक नए विकल्प की तलाश कर रहा है , जो अधिकार न सही , जीवन निर्वाह करने की सही परिस्थितियाँ तक तो मुहैया करा सके । इस वातावरण में व्यक्ति अब और अधिक समय तक तड़प नहीं सकता , उसे बाहर निकलने के लिए रास्ता चाहिए किन्तु इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक होगा कि जब-जब एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था में प्रवेश करते हैं , तब-तब जान-माल के ह्रास का लाल रंग चहुँ ओर बिखर जाता है । फिर भी, मेरे विचार से अब ज़्यादा समय नहीं रह गया है , जब प्रत्येक व्यक्ति इस घटिया व्यवस्था से बाहर निकलने के लिए अपनी अंतिम साँसे भी क्रांति को समर्पित कर देगा ।
           हमें अब जीवन भर नहीं लड़ना, बस जीवन की एक लड़ाई लड़नी होगी । जिसमें हो सकता है , हमारे पास अधिकार ‘ख़रीदने’ की हैसियत न हों किन्तु हमारे अपने अधिकारों को छीनने का साहस हमारी हैसियत से नहीं अपितु हमारे ज़ुनून और आगे बढ़ने की तमन्ना में झलकेगा । लोकतंत्र न तो वंचितों को अधिकार सम्पन्न बना सका और न ही पुरुष-स्त्री जैसे कई अंतरालों को समाप्त कर सका । अब पानी सिर के ऊपर निकल रहा है और जो इसमें डूबकर मर चुके हैं , वो बार-बार अपनी क़ब्र से सिर बाहर निकालकर देख रहे हैं कि उनकी वर्तमान पीढ़ियाँ भी उन्हीं की तरह तड़पने को मजबूर हैं अथवा अपने स्वयं के लिए उठकर खड़े होने का साहस जुटा रही है ।
           अब इस बात की ज़रा भी गुंजाइश नहीं हैं कि लोकतंत्र अपने-आप में सुधार कर सके तब क्या हमें हमारी आँखें लाल करनी ही होगी ? अथवा हमें इस घुटन भरी व्यवस्था से बाहर निकलने का कोई और विकल्प तलाशना होगा क्योंकि अब लोगों के पास सहनशक्ति नहीं बची है और कब अंतर्मन का ज्वालामुखी फूट पड़े , कुछ कहा नहीं जा सकता।

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