अंतर्द्वन्द्व -2 (क्या हम जीवित हैं?)

    कहानियों का जिस्म ही पात्रों की रूह का आधार होता है । अपनी विशिष्टता एवं सामान्यता के प्रत्येक पहलू को छूते हुए हर पात्र अपने - आप में एक कहानी बनता जाता है । इसी आधार को पृथ्वी जगत की अन्तर्क्रियाओं में समाविष्ठ करते हुए हम स्वमेव ही इस वृहत कहानी के पात्रों के रूप में परिभाषित हो रहे हैं । जिन्हें यह तो ज्ञान है कि हम इस पृथ्वी पर पात्रों के रूप में परिभाषित हैं किन्तु इस बात का बोध नहीं कर पा रहे हैं कि हम किस लेखक की कलम से संचालित हो रहे हैं ।

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       इस बारे में हर किसी का अपना अलग विचार है । बहुत से लोग कहते हैं कि उनकी कहानी के लेखन के लिए किसी लेखक की आवश्यकता नहीं है, उनकी कहानी के पात्र भी वो ही हैं और लेखक भी । मुझे यह वक्तव्य कहीं अधिक समीचीन लगता है क्योंकि जब किसी कहानी का लेखक अज्ञात होता है तब उस कहानी के पाठक को यह आभास होना लाजिमी है कि यह कहानी स्वयं उसी की है और उसके पात्र भी उसने स्वयं ही रचे हैं । मैं इस बात को इस आधार पर कह रहा हूँ कि कहानी के अन्दर स्थित पात्र को इसका बिल्कुल भान नहीं है कि उसे किसके द्वारा संचालित किया जा रहा है और इसके साथ ही एक जीवंत कहानी की विशेषता भी होती है कि उसके पात्र जीवंत हों,  स्वयं को सजीव महसूस करते हों, उनका निर्जीव होना कहानी की श्वसन क्रिया पर विपरीत प्रभाव डालता है इसलिए कहानी का प्रत्येक पात्र अपने आप में स्वयं को सजीव के रूप में स्थापित कर स्वयं परिणामोन्मुखी बनता है । क्या हम भी इसी पात्र की भांति स्वयं को सजीव के रूप में स्थापित कर रहे हैं?

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        लोगों के द्वारा कहा गया उपरोक्त कथन तब सही सिद्ध लगता है जब हम यह मान लें कि हम सभी जीवित हैं लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है कि हम सभी जीवित हों? मैं यही सोच रहा था । पहले तो हमें यह निर्धारित करना होगा कि हम जीवित हैं या नहीं। कहीं हमें हमारे जीवित होने का आभास ठीक उसी प्रकार तो नहीं हो रहा जैसे एक जीवंत कहानी के पात्र को उसके सजीव होने का होता है । क्या हमें मान लेना चाहिए कि हमारी कहानी जीवंत है और इसीलिए हम जीवित हैं अन्यथा हमें यह मानना चाहिए कि हम एक कहानी के पात्र मात्र हैं और हमारा जीवित होना या न होना लेखक के लेखन और संचालन तथा कहानी के प्रभावी परिणाम पर निर्भर करता है ।

        क्या हम सभी जीवित हैं?  इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमें पहले उन मानकों को परिलक्षित करना होगा जिनके आधार पर किसी को जीवित घोषित किया जाता है किन्तु समस्या यह है कि ये मानक स्वयं हमारे द्वारा ही स्थापित किये गए हैं । मैं सोचता हूँ कुछ ऐसे मानक जरूर होने चाहिए जो हमारे द्वारा निर्धारित न किए गए हों और जो यह भी सिद्ध करे कि हम जीवित हैं । मैं इस बात को इस आधार पर कह रहा हूँ कि यदि मेरी कहानी मेरे ही द्वारा बनाये गए मानकों से श्रेष्ठ सिद्ध होती है तो इसके द्वारा यह कतई सिद्ध नहीं होता कि मेरी कहानी वास्तव में श्रेष्ठ हों । उसके श्रेष्ठ सिद्ध होने के लिए मुझे मेरे स्वयं के मानकों के अतिरिक्त ऐसे मानक तलाश करने ही होंगे,  जो मेरे द्वारा निर्मित्त न हों किन्तु मेरी कहानी को वास्तव में श्रेष्ठ सिद्ध करते हों ।

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       इसी प्रकार हमें हमारे जीवित होने के सबूत के रूप में कहीं से तो ऐसे मानकों को ढूंढ कर लाना होगा, जो हमें वास्तव में जीवित सिद्ध करे और जो हमारे द्वारा बनाये गए न हों । हमें हमारी खोज जारी रखनी होगी, चाहे अभी हम जीवित हों अथवा नहीं...

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